Friday, September 18, 2009

कैसी ट्रेजिडी है नीच

कोई भी किताब पढ़ना शुरू करने से पहले मैं प्रायः रख रखाव की दृष्टि से उस पर रैपर चढ़ा लिया करता हूं, जो तत्काल हाथ की पहुंच में आ गए किसी पुराने अनुपयोगी अखबार या पत्रिका का होता है। स्वीडिश लेखक यान मिर्डल की विचारोत्तेजक पुस्तक `कन्फेशंस ऑफ ए डिस्लॉयल यूरोपियन' को पढ़ना शुरू करने के पहले इसी तरह उस पर भी रैपर चढ़ा लिया था। यह रैपर एक साहित्यिक अखबार का है। जिस पर डेटलाइन 1 से 15 अगस्त की दी गई है। और इस पर दिल्ली सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय द्वारा राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की स्मृति में जारी किया गया रंगीन विज्ञापन छपा है। इस पर नजर पहले भी पड़ी होगी, क्योंकि दिल्ली सरकार की इस सीरीज के विज्ञापन अनेकच पत्र पत्रिकाओं के अंतिम आवरण पर छपते हैं। किंतु उसकी विषयवस्तु पर गौर करने का सुयोग तब जुटा जब वह रैपर के रूप में किताब पर चढ़ा। इस विज्ञापन में राष्ट्रकवि के चित्र के साथ उनकी दो काव्य पंक्तियां भी दी गई हैं। गौर करें यहां `उनकी' को उद्धरण चिह्नों में दिया गया है, जिसकी गंभीर वजहें हैं। पहली यह कि ये काव्य पंक्तियां गुप्त जी की नहीं हैं, और दूसरी यह कि इनका पाठ (text) भ्रष्ट है। गुप्त जी के नाम से विज्ञापन में दी गईं काव्य पंक्तियां वस्तुतः उनकी न होकर उनके काव्य गुरु और सरस्वती पत्रिका के संपादक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की हैं, जो 1913 में उन्होंने गणेश शंकर विद्यार्थी के अनुरोध पर उनके पत्र प्रताप की मोटो लाइन के रूप में लिखी थीं, और लगभग 60 वर्ष तक, जब तक प्रताप निकला, उसके प्रत्येक अंक में प्रकाशित होती रहीं। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है जिसकी पुष्टि स्वयं गुप्त जी ने अपने एक संस्मरण में की है। द्विवेदी जी रचित प्रताप की मोटो लाइन का पाठ यूं है- `जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है, वह नर नहीं नरपशु निरा है और मृतक समान है।' इन पंक्तियों का विज्ञापन में छपा भ्रष्ट पाठ यूं है- `जिसको नहीं गौरव तथा निज देश का अभिमान है, वह नर नहीं नरपशु निरा है और मृतक समान है।' 

     हमारे यहां ऐसी चूकें आम तौर पर गंभीर रूप से नहीं ली जातीं। व्यस्त और छविवान लेखक ऐसी घटनाओं को मामूली मानकर अनदेखा कर देते हैं। किंतु यहां की प्रश्न सिर उठाए खड़े हैं। यह विज्ञापन एक जिम्मेदार राज्य सरकार के साहित्यिक- सांस्कृतिक सरोकारों को रेखांकित करने के उद्देश्य से उसी के एक विभाग द्वारा लोकवित्त की मद से जारी हुआ और उसे हिंदी के अनेक पत्र-पत्रिकाओं ने अपुष्ट सूचनाओं के अनुसार 30 हजार रुपए प्रति पृष्ठ की विज्ञापन दर से प्रकाशित किया। इनमें से अधिकांश पत्रिकाओं के संपादक हिंदी के नामी गिरामी साहित्यकार हैं और हिंदी भाषा - संस्कृति की आंख माने जाते हैं। लेकिन जहां किसी आर्थिक लाभ की बात आती है वहां वे आंखें या तो बंद रहती हैं या कहीं और देख रही होती हैं। लोकवित्त की एक बड़ी राशि के वारे-न्यारे हो जाते हैं, और हिंदी के जिज्ञासु साहित्य प्रेमियों के स्मृति कोश में एक गलत सूचना दर्ज कर दी जाती है। ऐसी ही एक और गलत सूचना अभी हाल में गंभीर छवि वाले हिंदी दैनिक `जनसत्ता' के प्रथम पृष्ठ पर प्रमुखता से छपे एक समाचार में देखने को मिली। उक्त समाचार उत्तर प्रदेश की मायावती सरकार द्वारा ढहाई गई लखनऊ की ऐतिहासिक महत्त्व की जेल से संदर्भित था। उत्साही संवाददाता ने उक्त जेल के ऐतिहासिक राष्ट्रीय महत्त्व का पुनः स्मरण करते हुए कई घटनाओं को तो आगे-पीछे , पीछे-आगे किया ही, `हम होंगे कामयाब एक दिन' के मुखड़े वाले प्रसिद्ध जनगीत के रचनाकार के बतौर न जाने कहां से शायर मजाज लखनवी का नाम खोज निकाला। उक्त तराने के बोल वस्तुतः प्रसिद्ध हिंदी कवि स्वर्गीय गिरिजाकुमार माथुर के हैं, जिन्होंने आकाशवाणी से जुड़ाव के दौरान एक प्रख्यात अंतरराष्ट्रीय तराने की संगीत रचना की ऑडियो टेप सुनकर उसी धुन पर  विकसित किया था। इस सूचना के साथ उक्त हिंदी तराना माथुर जी के एक काव्य संचयन में भी संकलित है।

    देश के ऐतिहासिक गौरव, साहित्य और संस्कृति के साथ जो सुलूक 1990 के बाद के ग्लोबल दौर में हो रहा है और जिनमें विभिन्न सरकारी एजेंसियों के साथ-साथ हिंदी पत्रकारिता योगदान कर रही है, वह किसी संवेदनशील व्यक्ति को उदास ही कर सकता है। इतिहास विरोधी इतिहास, संस्कृति विरोधी संस्कृति हमारे जातीय वर्तमान की सबसे गंभीर बौद्धिक ट्रेजिडी है।