Saturday, October 24, 2009

हिंदी कविता का एक दिग्भ्रमित सितारा - 'हितैषी'

     हिंदी में एक विलक्षण प्रतिभा के कवि थे जगदम्बा प्रसाद मिश्र 'हितैषी' (1896-1956)। वे कानपुर के 'सुकवि मंडल' की त्रयी के सबसे जाज्वल्यमान नक्षत्र थे। ब्रजभाषा और नागर हिंदी के साथ-साथ उर्दू और फारसी में उनकी अच्छी गति थी। खड़ी बोली में सवैया छंद के वे श्रेष्ठ कवि थे। निराला जी प्रायः उनका स्मरण 'सवैया का बादशाह' के रूप में किया करते थे। डॉ. नामवर सिंह ने भी अपने प्रारंभिक कवि-काल में उन्हीं से प्रेरित होकर सवैया छंद में अभ्यास किया था। 1936 के आसपास 'कल्लोलिनी' नाम से उनका सवैया संग्रह भी प्रकाशित हुआ था। कई अन्य काव्यकृतियां भी उनकी प्रकाशित हुईं किंतु अब वे प्राप्य नहीं हैं। देशभक्तिपूर्ण मशहूर गजल 'शहीदों की चिताओं पर जुड़ेंगे हर बरस मेले/ वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा' उन्हीं की रचना है। स्वयं 'हितैषी' भी, खुदीराम बोस वाले दौर में बंगाल में भूमिगत क्रांतिकारी आंदोलन में शिरकत कर चुके थे। बाद में विचारधारात्मक मतभेद के कारण वे वहां से चले आए। फिर भी देशभक्त क्रांतिकारियों की उपेक्षा वे कभी बर्दाश्त नहीं कर पाते थे। एक बार वृंदावन में एक साहित्योत्सव हुआ था, जिसमें हितैषी भी आमंत्रित थे। वहां उन्होंने देखा कि राजनेताओं की तो अभ्यर्थना हो रही है, गुणगान हो रहा है, किंतु उसी नगर से संबंधित भारत के प्रथम निर्वासित राष्ट्रपति महेन्द्र प्रताप का नामोल्लेख तक नहीं! इस उपेक्षा से आहत होकर उन्होंने तत्काल एक सवैया रच कर वहां पढ़ा, जिसे सुन कर उपस्थित जन-समुदाय में अदभुत भावोद्रेक हुआ और आयोजकों के चेहरे धुआं-धुआं हो गए। उसी समारोह में आयोजित कवि सम्मेलन के लिए एक 'समस्या' (तरह) रखी गई थी- 'वृंदावन की'। अपेक्षा यह थी कि सभी कवि वृंदावन का गौरवगान करेंगे। वहां आमंत्रित अतिथियों को जो रात्रि आवास दिया गया था वहां बिल्लियों की बहुतायत थी। उनकी धमाचौकड़ी में रात भर कोई सो नहीं पाए। हितैषी ने इसी उपालम्भ से कवि सम्मेलन में अवधी में एक कवित्त पढ़ा, जिसका अंतिम चरण था- 'गोकुल की गैयां जहां होइहैं तहां होइहैं/ हियां स्वानन न देती हैं बिलैयां वृंदावन की।'
     हिंदी में उमर खैयाम की रुबाइयों के काव्यानुवाद की अच्छी-खासी परंपरा है। मैथिलीशरण गुप्त से लेकर बच्चन, डॉ. रामविलास शर्मा तक सभी ने इस क्षेत्र में प्रयास किए हैं, लेकिन इन सभी ने मूल आधार अंग्रेजी कवि फिट्जगेराल्ड के विवादास्पद अंग्रेजी अनुवाद को बनाया। किंतु हितैषी उन विरल हिंदी कवियों में हैं जिन्होंने सीधे फारसी से खड़ी बोली सवैया छंद में खैयाम की रुबाइयों के अनुवाद किए। दुर्भाग्यवश उन अनुवादों का प्रकाशन नहीं हो पाया और वे तितर-बितर भी हो गए। बड़े अध्यवसाय से, कई शहरों की भागदौड़ करके यह पंक्तिकार उनमें से 22 सवैयों को गुमनामी में जाने और नष्ट होने से बचा पाया, जिनका प्रकाशन एक विस्तृत टिप्पणी के साथ कुछ वर्ष पूर्व अशोक वाजपेयी द्वारा संपादित महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की पत्रिका 'बहुवचन' में हुआ। रुबाई और सवैया की छंद-परंपरा भिन्न है, काव्य-प्रवाह में भी खासा अंतर है। इस दृष्टि से हितैषी के अनुवादों की प्रभावान्विति खैयाम की मूल रुबाइयों से घट कर मानी जा सकती है, बल्कि है; किंतु हिंदी में काव्यानुवाद का यह विरल उदाहरण तो है ही। 
     इस उद्भट काव्य-प्रतिभा के बावजूद हितैषी के व्यक्तित्व में खासी प्रगल्भता भी थी, जो उनकी वैचारिक सीमाओं के चलते अपने कटु आलोचक भी बनाती थी। 1924 में यू.पी. कौंसिल के चुनावों में कांग्रेस ने गणेशशंकर विद्यार्थी की अनिच्छा के बावजूद उन्हें चुनाव लड़ने का आदेश दिया। उनके विरुद्ध मदनमोहन मालवीय ने हिंदू महासभायी चुन्नीलाल गर्ग नाम के एक मारवाड़ी धनकुबेर को अपना उम्मीदवार बनाया, जो पानी की तरह पैसा बहाने के बावजूद अंततः पराजित हो गए। यह इतर प्रसंग है। यहां हितैषी का संदर्भ यह है कि वे भी मूलतः हिंदू महासभायी थे। उन्होंने चुन्नीलाल गर्ग के समर्थन में, विद्यार्थी जी के विरुद्ध एक कुत्सित कविता लिखी, जिसकी एक पंक्ति थी- 'तुम कौंसिल जाय कै का करिहौ, अखबार मां बारु उखाड़ा करौ'। उनकी यह पंक्ति मालवीय जी को भी अखरी थी, और वे उससे आहत हुए थे, क्योंकि राजनीतिक मतभेद के बावजूद वे गणेशशंकर विद्यार्थी को पुत्रवत स्नेह करते थे। निराला की 'खजोहरा' शीर्षक विवादास्पद कविता जब हिंदी में छपी, तो कई पुराणपंथियों को उससे धक्का लगा। उनमें एक हितैषी भी थे। उन्होंने प्रतिक्रिया में एक कविता लिखी और इलाहाबाद के 'देशबंधु' पत्र में बिना कविनाम के प्रकाशित कराई। उसकी पहली दो पंक्तियां थीं- 'निराला की थीं इक निराली बुआ/ न जिनसे बचा एक भी मर्दुआ।' निराला पढ़ कर बहुत उद्वेलित हुए। कवि की असली पहचान के लिए कई दिन तक परेशान रहे। अंततः जब उन्हें असलियत का पता चला, तो उनका क्रोध शांत हो गया। हितैषी के खुड़पेंची स्वभाव से वे भलीभांति परिचित थे और पंजा लड़ाई में बराबर का दंगली मानते थे।
     हितैषी का जिक्र करते हुए उर्दू के महाकवि सौदा की याद आती है, उनके कसीदों और गजलों के साथ उनकी हजो (निंदात्मक कविताएं) की भी। हितैषी अगर श्रीनारायण चतुर्वेदी, भगवतीचरण वर्मा, अमृतलाल नागर की पीढ़ी में टकसाली सवैयों के लिए याद किए जाते थे, तो उर्दू के हजो की तर्ज पर अपने भड़ौओं के लिए भी। हिंदी में भड़ौआ लिखने वाले वे अकेले कवि थे और तुल जाते थे, तो किसी को बख्शते न थे। 1925 की कानपुर कांग्रेस के दौरान नव-निर्वाचित कांग्रेस अध्यक्ष सरोजिनी नायडू पर भी उन्होंने एक भड़ौआ लिखा था, जो महात्मा गांधी तक को खटका था। और तो और, अपने सगे ताऊ पर भी उन्होंने एक ऐसा भड़ौआ लिखा, जो सार्वजनिक रूप से पढ़ा जाने काबिल नहीं था।
     शायद इसी को कहते हैं चंद्रमा में दाग।

Tuesday, October 20, 2009

हिंदी में मनीषी परंपरा की अंतिम कड़ी थे गुणाकर मुले

    गुणाकर मुले भी चले गए। दीवाली से एक दिन पहले- शुक्रवार को। उसी दिन उनकी अंत्येष्टि भी हो गई। मुझे अगले दिन, एक हिंदी दैनिक के अंदर के पृष्ठ पर नीचे एक कोने में छपी खबर से जानकारी हो पाई। कई मित्रों से फोन पर दरियाफ्त किया। उन्हें भी कोई सूचना नहीं थी। उनमें से एकाध दूरदराज के उनके संबंधी भी होते हैं। इस तरह चुपचाप उनका चले जाना, दोस्ती के नाते तो व्यथित करता ही है, एक लेखक के रूप में उनका जो कद था उसके मद्देनजर भी उनकी गुमनाम अंतिम विदाई हिंदी भाषा, साहित्य और पत्रकारिता की मौजूदा चिंताओं और प्राथमिकताओं को लेकर गहरे सवाल खड़े करती है। गुणाकर मुले कविता, कहानी, उपन्यासादि साहित्य-चर्वण करने वाले लेखक नहीं थे, उन्होंने प्राचीन विज्ञान-तकनॉलॉजी, पुरातत्त्व, पुरालिपिशास्त्र, मुद्राशास्त्र, इतिहास और संस्कृति की दुरूह और दुर्गम सरणियों का उत्खनन-अवगाहन किया था। लगभग 30 मौलिक ग्रंथ, दो हजार से ऊपर असंकलित हिंदी लेख, सौ से ऊपर अंग्रेजी शोध-निबंध उनके प्रभूत कृतित्व का अंग हैं। इतिहास-पुरातत्व की अनेक महत्त्वपूर्ण पुस्तकों का अनुवाद भी उन्होंने हिंदी में किया। महापंडित राहुल सांकृत्यायन, भदंत आनंद कौसल्यायन के व्यक्तित्व -चिंतन और कृतित्व के संभवतः अकेले विशेषज्ञ हिंदी में वही थे। गुणाकर मुले वस्तुतः राहुल सांकृत्यायन, वासुदेव विष्णु मिराशी, वासुदेव शरण अग्रवाल, मोतीचंद्र और भगवतचंद्र उपाध्याय वाली महान मनीषी परंपरा की हिंदी में अंतिम कड़ी थे।
     गुणाकर जी का जन्म 3 जनवरी 1935 को महाराष्ट्र के अमरावती जिले के एक गांव में हुआ था। मराठी मूल के होने के बावजूद उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से गणित में एम.ए. किया और लेखन के लिए हिंदी व अंग्रेजी भाषाओं को माध्यम बनाया। वर्षों दार्जीलिंग स्थित राहुल संग्रहागार से संबद्ध रहने के उपरांत 1971-72 के दौर में वे दिल्ली आ गए थे और फिर दिल्ली ही उनके जीवन का अंतिम पड़ाव बनी। यहीं उन्होंने विवाह किया, घर बसाया और रहे। एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि सिविल मैरिज के दौरान कोर्ट के सम्मुख मुले जी के पिता की भूमिका बाबा नागार्जुन ने निभाई थी। अंत तक वे राहुल जी, भदंत आनंद कौसल्यायन को अपने गुरु के रूप में और नागार्जुन को पितृवत् मानते रहे।
     गुणाकर जी से मेरा प्रथम परिचय 1971-72 के दौर में कवि श्री विष्णुचंद्र शर्मा ने टी हाउस-कॉफी हाउस की गहमागहमियों के बीच कराया था और तब से उनसे निरंतर मैत्रीपूर्ण संबंध बना रहा। उनके व्यक्तित्व में जहां एक प्रकांड विद्वान समाहित था, वहीं एक गहरेबाज मित्र भी जमा बैठा था। सालों के अंतराल के बाद भी- और भीड़ में भी खुद आगे बढ़ कर टहोकते थे और समय का अंतराल उनकी शहद जैसी गाढ़ी-आत्मीय आवाज में दब जाया करता था। कभी उनसे आये दिन मुलाकातें होती रहती थीं- काफी हाउस में, 25 बाराखंभा रोड में, जफर मार्ग पर जनसत्ता के दफ्तर में। एकाध बार पांडव नगर स्थित उनके घर भी जाना हुआ। मेरे पारिवारिक आयोजनों में भी उन्होंने शिरकत की। फिर फिराक गोरखपुरी की तर्ज पर वह दौर आया कि 'अब यादे-रफ्तगां की भी हिम्मत नहीं होती/ यारों ने इतनी दूर बसाई हैं बस्तियां...' । पिछले तीन-चार सालों के दरमियान सिर्फ एक बार एक विवाह समारोह में गुणाकर जी से मुलाकात हुई। फोन पर भी, अस्वस्थता के हवाले से, उनकी शहद घुली आवाज सुन पाना संभव नहीं रह गया था। ...और आखिरश् इस तरह 'झन् से सांस की बेड़ियां टूटीं ' कि 'मेरी कहानी में वह नाम' भी नहीं रहा।

Sunday, October 4, 2009

खते-तकदीर में ये भी लिखा था

जिगर मलिका का और उल्फत के सदमे
खते-तकदीर में ये भी लिखा था

मलिका इसी तरह जो तसव्वुर बना रहा
होगी नसीब उनकी जियारत तमाम रात

मलिका जॉन, एक अर्मीनियाई ईसाई महिला थी। पैदाइश और परवरिश बनारस में हुई। बाद में वह कलकत्ते जा बसी और गायकी और नृत्य में खासी शोहरत हासिल की। वहां हर शाम उसके यहां महफिल जमती थी, नृत्य और गायन की मौजें उमड़ती रहती थीं। गायन और नृत्य के अलावा, मलिका जॉन को शेरो-शाइरी से भी खासा लगाव था और यह फन उसने अपने जमाने के जाने माने शाइर बन्नू साहब 'हिलाल' की शागिर्दी में हासिल किया था। उन्नीसवीं सदी के उसी आखिरी दौर में उसकी शाइरी का एक मज्मुआ भी 'मखजने-उल्फते-मलिका' नाम से शाया हुआ था, जिसकी एक प्रति लंदन की ब्रिटिश म्यूजियम लाइब्रेरी में सुरक्षित है। महान शाइर दाग देहलवी अक्सर मलिका की महफिलों में जाया करते थे और उसका कलाम पसंद करते थे। गैर भारतीय मूल की मलिका का उर्दू शाइरी में बाकमाल दखल बेमिसाल तो है ही, तारीखी हैसियत भी रखता है।