वालेस स्टीवेंस की एक कविता*
अनु.-शमशेर
अन्वेषण-प्रक्रिया से अपनी
जो कर सके संतुष्ट
ऐसी मन की कविता। सदा ही अन्वेषित
नहीं करनी पड़ी है। वस्तु-परिवेश
तो आरंभ से प्रस्तुत ही रहा।
उसकी सरगम लिपि
जो भी उपलब्ध हो पाई
उसे बस गा भर देना पड़ा है।
लेकिन फिर मंच ही बदल गया।
और वह एक नयी ही चीज हो गया,
पूर्वरूप तो उसका मानो
एक इंगित का शकुन मात्र था।
उसे ही अब सप्राण करना है।
स्थानीय बोली का लहजा सीख लेना है।
अपने युग के युवा-दलों का सामना करना,
अपने युग की युवतियों से भेंट करना
और युद्ध के संदर्भ में सोचना है।
और जो संतोष दे सके ऐसा कुछ खोज कर ले आना है।
एक मंच तैयार करना। और उस मंच पर निरंतर
एक असंतुष्ट अभिनेता की तरह प्रस्तुत होना :
मनन करते हुए धीरे-धीरे
कान में वो ही शब्द बोलना--
सबसे कोमल बारीक पकड़ वाले कान को सुनाने के लिए
दुहराना-- ठीक एकदम वो ही शब्द दुहराना
जो वह सुनना चाहता है।
*प्रख्यात अमेरिकी कवि (1879-1955 )की 'मॉडर्न पोएट' (या शायद 'मॉडर्न पोएम'?) कविता के एक अंश का यह अनुवाद है। (सु.स.)