हमारे यहां ऐसी चूकें आम तौर पर गंभीर रूप से नहीं ली जातीं। व्यस्त और छविवान लेखक ऐसी घटनाओं को मामूली मानकर अनदेखा कर देते हैं। किंतु यहां की प्रश्न सिर उठाए खड़े हैं। यह विज्ञापन एक जिम्मेदार राज्य सरकार के साहित्यिक- सांस्कृतिक सरोकारों को रेखांकित करने के उद्देश्य से उसी के एक विभाग द्वारा लोकवित्त की मद से जारी हुआ और उसे हिंदी के अनेक पत्र-पत्रिकाओं ने अपुष्ट सूचनाओं के अनुसार 30 हजार रुपए प्रति पृष्ठ की विज्ञापन दर से प्रकाशित किया। इनमें से अधिकांश पत्रिकाओं के संपादक हिंदी के नामी गिरामी साहित्यकार हैं और हिंदी भाषा - संस्कृति की आंख माने जाते हैं। लेकिन जहां किसी आर्थिक लाभ की बात आती है वहां वे आंखें या तो बंद रहती हैं या कहीं और देख रही होती हैं। लोकवित्त की एक बड़ी राशि के वारे-न्यारे हो जाते हैं, और हिंदी के जिज्ञासु साहित्य प्रेमियों के स्मृति कोश में एक गलत सूचना दर्ज कर दी जाती है। ऐसी ही एक और गलत सूचना अभी हाल में गंभीर छवि वाले हिंदी दैनिक `जनसत्ता' के प्रथम पृष्ठ पर प्रमुखता से छपे एक समाचार में देखने को मिली। उक्त समाचार उत्तर प्रदेश की मायावती सरकार द्वारा ढहाई गई लखनऊ की ऐतिहासिक महत्त्व की जेल से संदर्भित था। उत्साही संवाददाता ने उक्त जेल के ऐतिहासिक राष्ट्रीय महत्त्व का पुनः स्मरण करते हुए कई घटनाओं को तो आगे-पीछे , पीछे-आगे किया ही, `हम होंगे कामयाब एक दिन' के मुखड़े वाले प्रसिद्ध जनगीत के रचनाकार के बतौर न जाने कहां से शायर मजाज लखनवी का नाम खोज निकाला। उक्त तराने के बोल वस्तुतः प्रसिद्ध हिंदी कवि स्वर्गीय गिरिजाकुमार माथुर के हैं, जिन्होंने आकाशवाणी से जुड़ाव के दौरान एक प्रख्यात अंतरराष्ट्रीय तराने की संगीत रचना की ऑडियो टेप सुनकर उसी धुन पर विकसित किया था। इस सूचना के साथ उक्त हिंदी तराना माथुर जी के एक काव्य संचयन में भी संकलित है।
देश के ऐतिहासिक गौरव, साहित्य और संस्कृति के साथ जो सुलूक 1990 के बाद के ग्लोबल दौर में हो रहा है और जिनमें विभिन्न सरकारी एजेंसियों के साथ-साथ हिंदी पत्रकारिता योगदान कर रही है, वह किसी संवेदनशील व्यक्ति को उदास ही कर सकता है। इतिहास विरोधी इतिहास, संस्कृति विरोधी संस्कृति हमारे जातीय वर्तमान की सबसे गंभीर बौद्धिक ट्रेजिडी है।
आपकी सजगता व प्रखरता का मै कायल हुआ...
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