Saturday, February 13, 2010

सैकड़ा शमशेर -8

'सौंदर्य' शीर्षक से शमशेर की दो कविताएं हैं, एक 'चुका भी नहीं हूं मैं' में, और दूसरी 'इतने पास अपने' में। पहली वाली का रचनावर्ष 1959 है, दूसरी का स्पष्ट नहीं है। दोनों ही कविताओं में तू, तेरी, तुम, तुम्हारे सर्वनाम आते हैं और कविताओं को व्यक्ति-संबोधित बनाते हैं। और तब भावक के मन में 'तू', 'तुम' सर्वनामों वाले व्यक्ति की पहचान को लेकर जिज्ञासा जागती है। इस गुंझलक को सुलझाने का सूत्र मुझे मलयज की डायरी का दूसरा खंड पढ़ते हुए हाथ लगा। 21 जून 64 की तिथि में मलयज शमशेर के कथन, या कहें स्पष्टीकरण को 'अन्य पुरुष' सर्वनाम में ढाल कर, अपनी डायरी में दर्ज करते हैं : ''किसी व्यक्ति का चेहरा यदि उन्हें सुंदर लगता है, तो इसका संबंध उस व्यक्ति से नहीं होता, वरन उस चेहरे से फूट कर जो उनके सृजनात्मक अहं को प्रतिबिंबित करता है, उसके कारण सुंदर होता है। यह सौंदर्य उनका अपना अलग रचा हुआ सौंदर्य है। अब अगर मान लीजिए किसी के इस 'प्रकार' के सौंदर्य पर वे लुब्ध हुए, तो यह पूरी संभावना है कि वह व्यक्ति यह कभी भी नहीं समझ पाएगा कि वह कवि को क्यों सुंदर दिखा, या जो कुछ भी समझेगा वह बिल्कुल दूसरा, गलत होगा।...''

शमशेर की सब नहीं, तो अधिकांश कविताओं को समझने का यह एक मूल्यवान सूत्र है। उनके यहां प्रेम, सौंदर्य के जितने भी रूप या रंग प्रतिभासित होते हैं, वे वस्तुतः प्रतिभास ही हैं। उन्हें अमूर्तन के रूप में लेकर ही शमशेर की कविता को अंशतः समझा जा सकता है। इन अर्थों में, क्या शमशेर ऐंद्रिय अमूर्तन के कवि कहे जायें?...

शमशेर की एक कविता और उसका अंग्रेजी अनुवाद

मुझे- न मिलेंगे- आप

मुझे
न मिलेंगे आप,
आपका/एकाकी क्षण हूं मैं;
आपका
भय और पाप,
आपका एकाकीपन हूं मैं।

आसमान
ढके हुए है
समुद्र का नीला द्रव;
देर से वह
तके हुए है
आपका
और मेरा कर्तव्य।

बरस पड़ेगा वह
सर पर--
उससे बचाव कोई नहीं।

वह अपनी समाधि है ऊपर;
उससे
अपनाव कोई नहीं।


Would you not be with me

Would you not be with me,
I'm your solitary moment;
Your fear
Your sin, and
Your loneliness I am.

Sky is covering
blu property of the sea;
It is staring of late
your's and mine duty.

It will come down
On our heads-
There is no protection of it.

There is our den of trance
up above,
There is no affection of it
like love.

Wednesday, January 20, 2010

सैकड़ा शमशेर -7


12 मई 2007 की एक टीप :

... न आये
किसी को भले,
याद शमशेर की
न आये...

मैं तो करूंगा ही या...द
अपने महबूब को...

ओफ्!...(मिसप्रिंट!)

(करेक्शन--)
मैं त' करूंगा ही याद
अपने शा'इरे महबूब को!


शमशेर की एक कविता और उसका अंग्रेजी तर्जुमा

धूप कोठरी के आइने में खड़ी
हंस रही है

पारदर्शी धूप के पर्दे
मुस्कुराते
मौन आंगन में

मोम-सा पीला
बहुत कोमल नभ

एक मधुमक्खी हिला कर फूल को
बहुत नन्हा फूल
उड़ गई

आज बचपन का
उदास मां का मुख
याद आता है।

Standing in the mirror of the Cell

Golden light of the sun
Standing in the mirror of the Cell
Is laughing

Curtains of transparent sunlight
Are smiling
In the silent courtyard

The sky is very soft
And yellow like wax

A bee shook to a flower
To a very-very little flower
And gone away

Today I remember
sad face of my mother
of my childhood days.

Monday, January 18, 2010

सैकड़ा शमशेर -6


शमशेर


फूल की नाजुक-मिजाजी को
तुम भले कोई नाम न दो
मैं मगर
देना चाहूंगा उसे
एक नाम--
शमशेर!

शिशु की दुग्ध-धवल किलकारी को
तुम भले कोई नाम न दो
मैं मगर
देना चाहूंगा उसे
एक नाम--
शमशेर!

शा'इर की जांफिशानी को
तुम भले कोई नाम न दो
मैं मगर
देना चाहूंगा उसे
एक नाम--
शमशे...र!

-सुरेश सलिल (शमशेर की पचहत्तरवीं सालगिरह के मौके पर लिखी गई और 'खुले में खड़े होकर' कविता संग्रह में प्रकाशित)



शमशेर की एक कविता और उसका अंग्रेजी तर्जुमा

सींग और नाखून
लोहे के बख्तर कंधों पर।

सीने में सूराख हड्डी का।
आंखों में घास-काई की नमी।

एक मुर्दा हाथ
पांव पर टिका
उल्टी कलम थामे।

तीन तसलों में कमर का घाव सड़ चुका है।

जड़ों का भी कड़ा जाल
हो चुका पत्थर।


The horns and the nails
Iron-made armours on the shoulders.

In the chest, a hole made by a bone
In the eyes : moisture of grass and moss.

A dead hand
staying on the foot
and picking a down-ward pen.

The wound of the waist has been
putrefied in three bowles.

Even the tough network of the roots stonified.

Sunday, January 17, 2010

सैकड़ा शमशेर -5

वालेस स्टीवेंस की एक कविता*

अनु.-शमशेर

अन्वेषण-प्रक्रिया से अपनी
जो कर सके संतुष्ट
ऐसी मन की कविता। सदा ही अन्वेषित
नहीं करनी पड़ी है। वस्तु-परिवेश
तो आरंभ से प्रस्तुत ही रहा।
उसकी सरगम लिपि
जो भी उपलब्ध हो पाई
उसे बस गा भर देना पड़ा है।

लेकिन फिर मंच ही बदल गया।
और वह एक नयी ही चीज हो गया,
पूर्वरूप तो उसका मानो
एक इंगित का शकुन मात्र था।
उसे ही अब सप्राण करना है।

स्थानीय बोली का लहजा सीख लेना है।
अपने युग के युवा-दलों का सामना करना,
अपने युग की युवतियों से भेंट करना
और युद्ध के संदर्भ में सोचना है।
और जो संतोष दे सके ऐसा कुछ खोज कर ले आना है।

एक मंच तैयार करना। और उस मंच पर निरंतर
एक असंतुष्ट अभिनेता की तरह प्रस्तुत होना :
मनन करते हुए धीरे-धीरे
कान में वो ही शब्द बोलना--
सबसे कोमल बारीक पकड़ वाले कान को सुनाने के लिए
दुहराना-- ठीक एकदम वो ही शब्द दुहराना
जो वह सुनना चाहता है।

*प्रख्यात अमेरिकी कवि (1879-1955 )की 'मॉडर्न पोएट' (या शायद 'मॉडर्न पोएम'?) कविता के एक अंश का यह अनुवाद है। (सु.स.)


Friday, January 15, 2010

सैकड़ा शमशेर -4

सिलसिलेवार तीन कविताएं

- शमशेर



मोड़

मोड़ हो जिस जा-- कड़ा हो
(और भी जमकर खड़ा हो)
टूटने के क्षण
नग्न हो
सत्य में अपने।

स्पष्ट
एक कोमलता कि है सौंदर्य ही केवल अमर
आवरण कर ले।

ज्ञान गुन। यह फेरता है क्या।
सूत्र है तू स्वयं माला का।
और फिर मुड़
घूम, चारों ओर देख, परख,
और बढ़ जा,
सत्य में अपने
नग्न
स्पष्ट।

(1943)


हम नए इतिहास का पहला वरक् हैं खुला

हम नये इतिहास का पहला वरक् हैं खुला!

नये मूल्यों का प्रकाश
आज
नये प्रातःकाल में, हम, कई देश,
कई संस्कृतियां, कई इतिहास,
एक हो रहे हैं :
एक
नया अंतःकरण
जिसमें
नया प्राण-पुष्प
खिल रहा है!

नया मानव अरुणमुख है।
प्रथम वेला शांति के दिग्विजय की है!

(1947)


काल तुझसे मेरी होड़ है

काल,
तुझसे मेरी होड़ है : अपराजित तू-- तुझमें
अपराजित मैं वास करूं! इसीलिए
तेरे हृदय में समा रहा हूं।
सीधा तीर सा जो रुका हुआ लगता हो--
कि जैसा ध्रुवनक्षत्र भी न लगे,
ऐसा एकनिष्ठ, स्थिर, कालोपरि
भाव, भावोपरि
सुख, आनंदोपरि
सत्य, सत्यासत्योपरि
मैं-- तेरे भी, ओ काल, ऊपर!

सौंदर्य यही तो है, जो तू नहीं है, ओ काल!
जो मैं हूं--
मैं कि जिसमें सब कुछ है...
क्रांतियां, कम्यून,
कम्युनिस्टी समाज के नाना
कलाविज्ञानदर्शन के
जीवंत वैभव से समन्वित
व्यक्ति मैं।

मैं, जो वह हरेक हूं
जो, तुझसे, ओ काल, परे है!

(15-5-62)





सैकड़ा शमशेर -3

... पहली कविता है- 'सौंदर्य'। सौंदर्य के प्रभाव की व्यापकता और विशालता व्यक्ति की अनुभूतियों में दिखाना अभीष्ट है...

सौंदर्य

एक सोने की घाटी जैसे उड़ चली
जब तूने अपने हाथ उठा कर
मुझे देखा,
एक कमल, सहस्रदली होंटों से
दिशाओं को छूने लगा
जब तूने आंख भर मुझे देखा!

न जाने किसने मुझे अतुलित छवि के भयानक
अहल से निकाला...
जब तू, बाल लहराये,
मेरे सम्मुख खड़ी थी : मुझे ज्ञात नहीं!
सच बताना, क्या तूने ही तो नहीं?

तूने मुझे दूरियों से बढ़ कर
एक अहर्निश गोद बन कर
लपेट लिया है,
इतनी विशाल व्यापक तू होगी,
सच कहता हूं, मुझे स्वप्न में भी
गुमान न था!

हां, तेरी हंसी को मैं उषा की भाप से निर्मित
गुलाब की बिखरती पंखुड़ियां ही समझता था :
मगर वह मेरा हृदय भी कभी छील डालेगी,
मुझे मालूम न था।
तेरी निर्दयता ही शायद दया हो,
और दोनों की एकप्राणता ही शायद
तेरा अजानपन...और
तेरा सौंदर्य है।
('लहर' में बहुत पहले प्रस्तुत प्रसंग में प्रकाशित। सटीक होने के कारण इसे यहां दिया जा रहा है।)


सौंदर्य का एक मुख्य तत्त्व शायद आभा या प्रकाश है। और उसी की लहरें हम अपने चतुर्दिक देख कर एक अजब अर्थ में कुछ पढ़ते और मौन हो जाते हैं। बहुत दूर तक हम उसमें डूब जाते हैं।


ओ शांत कोमलते :

हिमानी आसमानों में लपेट :-
मोम सा घुला, सहज ही उसे
एक ठोस
एक कर्मरूप बना दिया, निस्पृह
केंद्रित
मूल्यवान!


आवेश और जुनून सार्थक कर्म में शांत और मूल्यवान हो जाता है, सृजनात्मक हो जाता है- कोमल सौंदर्य का स्पर्श पाकर।

कली बनती फूल

मुक्त नन्ही-सी
एक अंगारा कली की
सादा भोर
कनखियों का-सा माध्यम
है पथों में छुपा।
और पत्तों के चहचहों में
अभी से वसंत है मुनमुन।

एक कली
बनने फूल
उठती है

कि
एक गंभीर सादा
अरुण भोर

काल की वेदी
नन्ही-सी,
और
देश का
अबीर-गुलाल--
अनजाने ही।

(जारी)

Wednesday, January 13, 2010

सैकड़ा शमशेर- 2

1977-78 के दरमियान कवि कमलेश ने 'समवाय' पत्रिका के पुनर्प्रकाशन की एक कोशिश की थी। उस योजना में मैं भी उनके साथ जुड़ा था। तभी शमशेर की अपनी हस्तलिपि में एक बहुत ही जर्जर पांडुलिपि कमलेश जी ने मुझे दी थी, कि मैं उसे टाइप करा कर संपुष्टि के लिए शमशेर जी को दिखा लूं, कि वे कोई संशोधन तो नहीं करना चाहेंगे। शमशेर जी ने पूरे मसविदे को पढ़ा था, किंतु किसी तरह के संशोधन की जरूरत, उस समय, नहीं अनुभव की।
'समवाय' की योजना दुर्भाग्य से बीच में ही ठप् हो गई। शमशेर की मूल पांडुलिपि भी 'समवाय' के कागजात के साथ बंधकर न जाने कहां चली गई। न जाने कहां! बेशक उसकी एक टाइप्ड कॉपी मैं अपने साथ ला पाने में कामयाब रहा। बाद में, जब 'युवकधारा' पत्रिका का संपादन-दायित्व मेरे जिम्मे आया, तो उसमें से कुछेक कविताएं मैंने पत्रिका के अंकों में छापीं और पत्रिका की सामर्थ्यानुसार मानदेय के चेक के साथ उनकी प्रतियां शमशेर जी को भेजीं। हालांकि उनकी कोई पावती सूचना नहीं मिली। शमशेर जी के स्वभाव में नहीं थी ज्यादा खतोकिताबत। वैसे, उन्हीं में से एक कविता शमशेर के आगामी संग्रह की शीर्षक कविता बनी। एकाध को छोड़ कर, उस मसविदे की अन्य कविताएं भी उनके अन्य संग्रहों में आ चुकी हैं। फिर भी, उस मसविदे का ऐतिहासिक महत्त्व है। ऐतिहासिक इसलिए, कि वह सवक्तव्य कविताओं की शक्ल में है। लिहाजा, कविता के, शमशेर के अपने सौंदर्यशास्त्र से संदर्भित कतिपय मूल्यवान टिप्पणियां भी उसमें हैं। उक्त मसविदा इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है, कि उसमें सम्मिलित कविताओं के पाठ, शमशेर के कविता संग्रहों में सम्मिलित होने तक संशोधित-परिवर्धित हुए हैं। दोनों ही दृष्टियों से शमशेर जी की कविताओं का उक्त मसौदा उनकी कविता में दिलचस्पी रखने वालों के लिए दस्तावेजी हैसियत का माना जाना चाहिए। यही सोच कर यहां उसे यथावत् पुनर्प्रस्तुत किया जा रहा है।

तीन सवक्तव्य कविताएं : शमशेर

- मेरी दिलचस्पी सदैव शिल्प की विविधता में रही है।
- रोमानी, यानी सौंदर्य की जिज्ञासा लिये हुए, उस की/के अस्पष्ट से मूल्यांकन के साथ।
- अपने बाहर के यथार्थ जीवन की नवीन परंपरा की अनुभूति, जहां हम मानव-मात्र के लिए शांति और सुख की कामना करते हैं...
- फिर एक ऐसी खोज की कविता, जो कवि के अंतर में ही संभव और सुलभ है, बिंबों के माध्यम से अलग-अलग फ्रेम- रजनी के, प्रेम और प्रतीक्षा के, कला के मर्म को झलकाने के...
- मेरी दिलचस्पी शब्द-शिल्प से अधिक स्वर-शिल्प, विशेषकर दीर्घ स्वरों के प्रयोगों में रही है। स्वाभाविक अभिव्यक्ति के जो विराम होते हैं, और उनकी गतियां : उनसे फायदा जरूर उठाता हूं।
- बिंब या 'इमेज' में मेरी दिलचस्पी सीधी नहीं है। अनुभूति की अपनी रौ में वे आते हैं और चले जाते हैं। इसी रौ के खटके उन्हें मिलाते और अलग करते हैं, उनका प्रभाव ही अपेक्षित होता है...
पूरी कविता के लिए, अलग से किसी चित्रात्मक प्रभाव के लिए नहीं।
- गजल की जमीनें (छंद और तुक-योजना का स्वरूप) और बहरें (छंद) भी कुछ इसी तरह मेरी भावनाओं को उभारती और अपनी विभिन्न गतियों और प्रकारों में खींच ले जाती हैं।
- बहरहाल जो कविताएं मैं पेश करने जा रहा हूं, उनके मेरी कोशिश का कुछ अंदाजा लगेगा।... (जारी)

Tuesday, January 12, 2010

सैकड़ा शमशेर -1

आज 13 जनवरी है। सन 2010 की 13 जनवरी। हमारे 'इतने पास अपने' कवि शमशेर जी, यानी शमशेर बहादुर सिंह की पैदाइश का सौवां साल आज से शुरू हो रहा है। और शुरू हो रहा है इस सिलसिले को आगे बढ़ाता जलसों का सिलसिला भी। इन जलसों में शिरकत के साथ-साथ, हर उस शख्स के, जो शमशेर की ही तरह शा'इरी को, और ऑक्सीजन को, और मार्क्सवाद को जिंदगी की बुनियादी जरूरतें मानता है, अपने हौसले- दिल के वलवले- हो सकते हैं अपने महबूब शा'इर को- उसकी पैदाइश के सौवें साल के दरमियान- जो अपने आप में (बकलम खुद) 'करोड़ों किरनों की जिंदगी का नाटक सा' है- एक नज्म की तरह पढ़ने के, सुनने के, देखने के।
इसी हौसले, या कि वलवले ने यह हौसला पैदा किया मेरे दिल में, कि आज से एक साल तक, यानी 13 जनवरी 2011 तक 'सुसवीक्षा' की सारी किस्तें शमशेर जी के नाम दर्ज की जाएं। इसकी डिजाइन, जेहन में, कुछ-कुछ कोलाज किस्म की है- शमशेर से संदर्भित मेरी अपनी चीजें, शमशेर की शा'इरी को अंग्रेजी में उल्था करने की (मेरी) बालोचित कोशिशें, औरों के सटीक अंश तथा खुद शमशेर के खजाने के चुनिंदा-पसंदीदा हीरे-मोती।
उम्मीद है, आप इन किस्तों को पढ़ेंगे और अपनी राय भी देंगे।

शा'इर इक्
नाम है जिसका
शमशेर
पूरा आईना है उसका हर शे'र
धड़कता सीना है
शा'इर
शमशेर

मां के आंचल की तरह पाक है वो
दिल ही दिल है, न जिस्मे-खाक है वो
सच कहूं-
शा'इरी की
नाक है वो!

येस्!
शीन और मीम
और फिर
शीन, छोटी ए के साथ, और
अखीर में रे!

हर्फ-ब-हर्फ एकदम खरे-
शे'रियत से शमशेरियत तक-
श म् शे ए ए र!

शमशेर की एक कविता और उसका अंग्रेजी तर्जुमा

शाम और रात : तीन स्टेंजा

तकिये पे
सुर्ख गुलाब मैंने
समझे-
दो

सेब मैंने समझे दो...
क्यों?

वो तो...वो तो
दो दिल थे।


संग
-शाम का रंग लपेटे
तुम थे

- तकिये पे सिर्फ मेरा सिर था :
आंखों में
रात जल रही थी।

The Evening and the Night : Three stanzas

On the pillow
I felt two red roses...

I felt two apples...
why?

Those were...
those were actually two hearts.

Alongwith
-wrapped up with the shade of evening
were you,

- There, on the pillow, was only my head
and night was flaming in the eyes.