Friday, January 15, 2010

सैकड़ा शमशेर -4

सिलसिलेवार तीन कविताएं

- शमशेर



मोड़

मोड़ हो जिस जा-- कड़ा हो
(और भी जमकर खड़ा हो)
टूटने के क्षण
नग्न हो
सत्य में अपने।

स्पष्ट
एक कोमलता कि है सौंदर्य ही केवल अमर
आवरण कर ले।

ज्ञान गुन। यह फेरता है क्या।
सूत्र है तू स्वयं माला का।
और फिर मुड़
घूम, चारों ओर देख, परख,
और बढ़ जा,
सत्य में अपने
नग्न
स्पष्ट।

(1943)


हम नए इतिहास का पहला वरक् हैं खुला

हम नये इतिहास का पहला वरक् हैं खुला!

नये मूल्यों का प्रकाश
आज
नये प्रातःकाल में, हम, कई देश,
कई संस्कृतियां, कई इतिहास,
एक हो रहे हैं :
एक
नया अंतःकरण
जिसमें
नया प्राण-पुष्प
खिल रहा है!

नया मानव अरुणमुख है।
प्रथम वेला शांति के दिग्विजय की है!

(1947)


काल तुझसे मेरी होड़ है

काल,
तुझसे मेरी होड़ है : अपराजित तू-- तुझमें
अपराजित मैं वास करूं! इसीलिए
तेरे हृदय में समा रहा हूं।
सीधा तीर सा जो रुका हुआ लगता हो--
कि जैसा ध्रुवनक्षत्र भी न लगे,
ऐसा एकनिष्ठ, स्थिर, कालोपरि
भाव, भावोपरि
सुख, आनंदोपरि
सत्य, सत्यासत्योपरि
मैं-- तेरे भी, ओ काल, ऊपर!

सौंदर्य यही तो है, जो तू नहीं है, ओ काल!
जो मैं हूं--
मैं कि जिसमें सब कुछ है...
क्रांतियां, कम्यून,
कम्युनिस्टी समाज के नाना
कलाविज्ञानदर्शन के
जीवंत वैभव से समन्वित
व्यक्ति मैं।

मैं, जो वह हरेक हूं
जो, तुझसे, ओ काल, परे है!

(15-5-62)





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