Friday, January 15, 2010

सैकड़ा शमशेर -3

... पहली कविता है- 'सौंदर्य'। सौंदर्य के प्रभाव की व्यापकता और विशालता व्यक्ति की अनुभूतियों में दिखाना अभीष्ट है...

सौंदर्य

एक सोने की घाटी जैसे उड़ चली
जब तूने अपने हाथ उठा कर
मुझे देखा,
एक कमल, सहस्रदली होंटों से
दिशाओं को छूने लगा
जब तूने आंख भर मुझे देखा!

न जाने किसने मुझे अतुलित छवि के भयानक
अहल से निकाला...
जब तू, बाल लहराये,
मेरे सम्मुख खड़ी थी : मुझे ज्ञात नहीं!
सच बताना, क्या तूने ही तो नहीं?

तूने मुझे दूरियों से बढ़ कर
एक अहर्निश गोद बन कर
लपेट लिया है,
इतनी विशाल व्यापक तू होगी,
सच कहता हूं, मुझे स्वप्न में भी
गुमान न था!

हां, तेरी हंसी को मैं उषा की भाप से निर्मित
गुलाब की बिखरती पंखुड़ियां ही समझता था :
मगर वह मेरा हृदय भी कभी छील डालेगी,
मुझे मालूम न था।
तेरी निर्दयता ही शायद दया हो,
और दोनों की एकप्राणता ही शायद
तेरा अजानपन...और
तेरा सौंदर्य है।
('लहर' में बहुत पहले प्रस्तुत प्रसंग में प्रकाशित। सटीक होने के कारण इसे यहां दिया जा रहा है।)


सौंदर्य का एक मुख्य तत्त्व शायद आभा या प्रकाश है। और उसी की लहरें हम अपने चतुर्दिक देख कर एक अजब अर्थ में कुछ पढ़ते और मौन हो जाते हैं। बहुत दूर तक हम उसमें डूब जाते हैं।


ओ शांत कोमलते :

हिमानी आसमानों में लपेट :-
मोम सा घुला, सहज ही उसे
एक ठोस
एक कर्मरूप बना दिया, निस्पृह
केंद्रित
मूल्यवान!


आवेश और जुनून सार्थक कर्म में शांत और मूल्यवान हो जाता है, सृजनात्मक हो जाता है- कोमल सौंदर्य का स्पर्श पाकर।

कली बनती फूल

मुक्त नन्ही-सी
एक अंगारा कली की
सादा भोर
कनखियों का-सा माध्यम
है पथों में छुपा।
और पत्तों के चहचहों में
अभी से वसंत है मुनमुन।

एक कली
बनने फूल
उठती है

कि
एक गंभीर सादा
अरुण भोर

काल की वेदी
नन्ही-सी,
और
देश का
अबीर-गुलाल--
अनजाने ही।

(जारी)

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